'विन्टरकोनिंग' कहानी का एक अंश (1)


















पुष्पिता अवस्थी जी ने कविता के साथ-साथ कहानी लेखन में भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है । उनकी इसी पहचान की एक झलक को मेधा बुक्स प्रकाशक द्धारा प्रकाशित उनके कहानी संग्रह 'जन्म' की एक कहानी 'विन्टरकोनिंग' के इस एक अंश में यहाँ देखा/ पहचाना जा सकता है :

'मेयर की बगल में इनके सहयोग के लिए दो ऑफिस की उच्च पदस्थ महिलाएँ भी खड़ी थीं । उनके हाथों में बियर के गिलास थे …और होठों में मुस्कराहट । उनके चेहरे पर तनाव की कोई झलक नहीं थी और मेयर की बगल में खड़े होने का न कोई अतिरिक्त गर्व था । उनमें से एक शेखर को गहराई से पहचानती थी जबकि शेखर को ठीक से याद नहीं था । उसने गाल मिलाकर चूमते हुए शेखर को याद दिलाया और अपनी शर्ट पर लगे नाम की प्लेट उचककर शेखर की आँख के सामने कर दी । शेखर को अपनी इस भूल पर बहुत शर्मिन्दगी हुई । उससे शीला का परिचय कराया और अपने घर आने को आमंत्रित किया । सरकारी ….गैर-सरकारी और प्रेस फोटोग्राफर अपनी-अपनी तरह से तस्वीरें ले रहे थे । लेकिन इसको लेकर कहीं कोई कॉन्शसनेस नहीं थी और न ही अतिरिक्त मीडिया का दबाव था ।
शीला का हाथ थामे शेखर जैसे ही दो कदम खिसके कि बॉस मान ने शीला और शेखर के बीच सिर घुसाते हुए कहा, 'टेक मोर ड्रिंक्स आफ्टर देन मूव ।' इसके बाद शेखर के कुछ और दोस्त मिले । बातें हुईं । परिचय हुआ । दो बार और वाइन ली । शीला कलाई में बँधी हुई घड़ी के चलते हुए समय को बगैर देखे हुए भी देख रही थी । जबकि शेखर हमेशा उसका हाथ पकड़े रहते हैं । यूरोप में अपनी गर्लफ्रेंड जो पत्नी ही होती है का हाथ पकड़ कर चलने का आम रिवाज़ है । भारत में शेखर के साथ होने पर शीला को लगता रहता था कि अब जब वह हाथ पकड़ कर चलेंगे तो लोगों के लिये तमाशा बन जायेगा । जो यहाँ सहज है वह वहाँ असहज हो जाता है और बेमतलब लोगों की भीड़ इकठ्ठा हो जाती है । इस डर से शेखर जिस बगल होते थे शीला अपने उसी हाथ में हैंड बैग ले लेती थी तो वह दूसरी बगल हो जाते थे तब वह फिर अपने हैंड बैग का हाथ बदल लेती थी । आखिर शेखर ने पिछली बार तंग आकर हँसते हुए शीला से कहा था, 'यार, तुम्हारे देश में इतनी भीड़ है कि यहाँ तो हाथ पकड़े बिना चला ही नहीं जा सकता है । इसलिए कम से कम इतना तो मेरा ख्याल रखो ….कहीं खो गया तो बस । अपने देश में मैं हमेशा तुम्हारे हाथ पकड़े रहता हूँ ।' सुनते ही शीला ने मुस्कराकर कहा था, 'मैं भी तो ।'
शेखर ने शीला को याद दिलाते हुए कहा, 'हमें माँ के पास भी चलना है …वह इंतज़ार कर रही होगी । अभी वह हफ्ते भर पहले घर से ही 'फ्लैखलस-ओल्ड हाउसेस' में गयी हैं । जिंदगी भर परिवार में रही हैं इसलिए अकेले कमरे में डर लगता होगा …. अभी वह वहाँ घुली-मिली नहीं हैं …. न डायनिंग हॉल में लंच लेती हैं …. न ही किसी फंक्शन में जाती हैं और न ही उसी बिल्डिंग के बॉडी फिटनेस सेक्शन में दाखिल होती हैं ।' सुनकर शीला को लगा कि बयासी वर्ष की अकेली माँ में अब भला कौन-सी अभिलाषा बची होगी । कौन-सा खाना … ? किसके लिए खाना …. ? काहे का खेल …. ? किसके साथ खेलना …. ? जब खेलने की उम्र थी तब पंद्रह वर्ष की उम्र में ब्याह कर दिया गया था । पढ़ने को सोचा तो गौना मढ़ दिया गया था । पति से प्यार करने और वैवाहिक जीवन का सुख जीना चाहा तो पैंतालिस वर्ष की उम्र तक के बीच दस बच्चे पैदा करने में बीत गए । सब बन गए जब, तब अपना-अपना सबने घर बसा लिया और कुछ ऐसे बसा लिया कि माँ-बाप के लिए किसी के पास न जगह बची और न ही समय बचा । पिता बच्चों के प्यार के अभाव की अनुभूति में टूट गए । अपने बड़े लड़के की बातें न सुनीं । धीरे-धीरे परिवार में दरारें पड़ती गयीं और परिवार बिखर गया । इस टूटन से पिता टूट गये । आस्थावान पिता अपनी प्रार्थना में ईश्वर से हाथ जोड़कर …. हाथ उठा कर यही माँगते …. हे प्रभु, अबकी बार मनुष्य जन्म मत देना । मानव बनने में बड़ा दुःख है । जीना कठिन है । ऐसे ही कठिन समय से थककर एक शाम माँ को छोड़कर चले गए । अंतिम समय माँ से यही कहा था कि अपनी पंद्रह बरस की उम्र से तुम हमारी साथी रही हो …. । तुमने मेरा सबसे ज्यादा साथ दिया है …. । तुमसे मुझे कोई दुःख नहीं पहुँचा है …। लेकिन …. अब हम जाते हैं । जीना कठिन है …. । और …. और …. वह बैठक में लरजकर गिर पड़े । लड़खड़ाते हुए उनके गिरने से पैंट की जेब से एक छोटी-सी शीशी गिरी ।
माँ अनपढ़ थी। न पढ़ सकी । पढ़ लेती भी तो क्या कर लेती ? जो होना था वह हो चुका था । पिता घर को इस तरह सँभालते और देखते थे कि सूर्यास्त के बाद आठ दरवाजों में ताले जड़ते थे । वह सब चाभियाँ एक साथ थीं । चाभी से ज्यादा जिनके ताले पिताजी ही पहचानते थे । जिस रात पिताजी देह छोड़ कर गये थे, आठों किवाड़ों में पिता के हाथों ताले लगाये जा चुके थे । माँ अकेले ही पिता की मृत्यु को छटपटाकर देखती रह गयी थीं । पिता की आँखों के सामने अँधेरा होने से पहले उस रात माँ की जीवन की आँखों के सामने अँधेरा छा गया था ।'

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