।। आस्था ।।


















आस्थाएँ
जनती हैं प्रेम
भरती हैं विश्वास
मानस गर्भ में
भीतर ही भीतर
रचती रहती हैं 
लोक कला का
नूतन नमूना

आस्थाएँ
अनन्तगर्भी और मौन होती हैं
नयन-नेह-गेह में साधनारत
अधरों पर गूँजती
आत्मा में विश्राम करती हुई
आस्थाएँ जनती हैं प्रेम
आस्थाएँ जानती हैं प्रेम

आस्थाएँ
स्पर्श चाहती हैं
निर्जला व्रत के बाद
आस्थाएँ
नतमस्तक होती हैं
शैल प्रतिमाओं के समक्ष

आस्थाएँ
हाथ बनकर
निकल आती हैं आत्मा से बाहर
और स्पर्श करती हैं
पाषाण-प्रतिमा
और अनुभव करती हैं
आराध्य की पिघली शक्ति
रक्त में घुली हुई

आस्थाएँ
स्पर्श करती हैं
पर्वत को पिता की तरह
सरिता को माँ समान

आस्थाएँ
सौंपती हैं अथाह-प्रेम
शहद-सागर
आँखें
फिर-फिर दर्शनार्थ
दौड़ा ले जाती हैं पाँव

आस्था का
अनन्य प्रणय
स्पर्श करना चाहता है
आत्मा का असीम स्नेह
आस्था की आँखें
पाषाण में
बोती हैं ईश्वरीय छवि
जैसे देह
बोती है देह में प्रेम ।

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