।। अधूरे चाँद के निकट ।।
सूर्य रश्मियों से
सोख ली है प्रणय उर्मियाँ
अधूरे चाँद के निकट
रख दी हैं स्मृतियाँ
ह्रदय प्रसूत तुम्हारे शब्द
पूर्णिमा की ज्योत्स्ना से समृद्ध
स्वाति नक्षत्र की बूँद से
पी है निर्मल नमी
वसन्त के गन्ध-बीज को
उगाया है मन वसुधा में
साँसों में
जो रहता है मेरी खिड़की को थामे
अंतरिक्ष के तारे को
और आँखों के भीतर
स्वप्न-पुरुष बनकर
नाम दिया है उसे तुम्हारी
नक्षत्र-लोक में
अपना प्राण-पुरुष भेजा है
चुपचाप ।
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