।। दूब की जड़ों में ।।

























पार के परे
कथाओं का बीज शब्द-प्रेम
जीवन का प्राण शब्द
प्रण शब्द
आँखों के निर्मल मुलायम आकाश में
नवपाखी-सा
देह की सीमाओं का खोल छोड़ता
अंडे से चूजे की तरह
निकल आता है फड़फड़ाता

सकुची मुस्कुराहट में
दूब की जड़ों में डूबी कोमलता की छाया
अधरों की कोरों में
ठहर जाती है जलाशय की तरह
गल-घुल जाती है जिसमें
सपनों की रसपयस्विनी धवलता
घने कोहरे की चुअन
महुए की उजली टपकन

मीठी सुगन्ध का देह धरे
धरा पर उतरता
पारदर्शी मन का
ओस बूँद बन
दूब नोक पर अटक बैठता
घटाओं में इतराती
सूर्य रश्मि की परियों का मधुर अहसास
प्रेम आस

प्रणय-धारा के
प्रण-तट पर
रेत के भुरभुरे ढूह पर
नमी तलाशते
दोनों के बैठने भर से
बन जाते हैं
दो कोटर
जैसे प्रणय के चेहरे की दो सजल आँखें
      प्रणय अगोरती आकाश सँजोती
      कोटर की आतुर अंजलि पसारे

दोनों का ह्रदय
देह से बाहर हो
सदेह बैठता है साथ साथ
शून्य को सरस करता
रेत में प्रणय की अक्षय छाया भरता ।

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