।। गर्भ की उतरन ।।
स्त्री
जीवन में उठाती है इतने दुःख
कि 'माँ' होकर भी
नहीं महसूस कर पाती है
माँ 'होने' और 'बनने' तक का सुख
स्त्री
होती है सिर्फ कैनवास
जिस पर
धीरे-धीरे मनुष्य रच रहा है
घिनौनी दुनिया
जैसे स्त्री भी हो कोई
पृथ्वी का हिस्सा
मनुष्य से इतर
स्त्री
झेलती है जीवन में
इतने अपमान
कि भूल जाती है आत्म-सम्मान
स्त्री
अपने को धोती रहती है सदैव
अपने ही आँसुओं से
जैसे वह हो कोई
एक मैला-कुचैला कपड़ा
किसी स्त्री-देह के गर्भ की उतरन
(नए प्रकाशित कविता संग्रह 'गर्भ की उतरन' से)
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