तीन कविताएँ
।। घुल जाती है ।।
प्रणय-दृष्टि
ही
नेह-देह है
जहाँ नहाती हैं उमंगें
चित्त की अंतः सलिला में
घुल जाती है देह
नयनों के सरोवर में
डुबकियाँ लगाकर
मन-देह
हो जाती है कभी ग्लेशियर
कभी तप्त लावा
कभी कैलाश शिखर
और अंततः
प्रणय का अक्षय शिवलिंग
आराधनारत
प्रेम में
प्रिय की
अक्षत सिद्धियों के लिए
।। रोज़ मिलते हैं ।।
रोज़ मिलते हैं
एक दूसरे से
आवाज़ और ध्वनि में
होते हैं आलिङ्गित-आत्मलीन
शब्दों की हथेलियों में
होती हैं हम दोनों की हथेलियाँ
संवाद करते हैं गलबहियाँ
बावजूद इसके
शब्दों से अधिक
हम सुनते हैं एक-दूसरे की साँसें
और समझते हैं अर्थ
शब्दों की धड़कनों का
।। अंतस में ।।
सूर्य से
सोख लिए हैं
रोशनी के रजकण
अधूरे चाँद के निकट
रख दी हैं
तुम्हारी स्मृतियाँ
स्वाति बूँद से
पी है
तुम्हारी निर्मल नमी
वसंत-बीज को
उगाया है अंतस में
कहीं से
मन झरोखे को थामे हुए तुम
रहते हो मेरी अंतर्पर्तों में
स्वप्न-पुरुष होकर
मेरी अंतरंग यात्राओं के
आत्मीय सहचर
('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)
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