दो कविताएँ
।। सौंपने के लिए ।।
मन के भोजपत्र पर
अदृश्य भाषा में
स्पर्श लिखता है
प्रणय का अमिट महाकाव्य
कि पूरी देह छूट जाती है
प्रिय-देह में
विदेह होने के लिए
पृथ्वी का विलक्षण प्रेम
उमड़ आता है
भीतर-ही-भीतर
तुम्हारे होने पर
कि सृष्टि का संपूर्ण अमूर्त सौंदर्य
मूर्त हो उठता है
हृदय की अँजुली में
तुम्हें सौंपने के लिए
।। नदी की गहराई ।।
अपनी
स्मृतियों में
तुम्हारे प्रतिबिम्ब के
उझकते ही
मैं
नदी हो जाती हूँ
नदी हो जाती हूँ
प्रवाहित होने लगता है
मुझमें जीवन
तुम्हारी बाँहों के
दोनों तटों के बीच
मैं उठने लगती हूँ
अपनी देह की सतह से
नदी की गहराई की तरह
('भोजपत्र' शीर्षक कविता संग्रह से)
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