।। देह-विदेह ।।
दो गोलार्द्धों में
बाँट दिए जाने के बावजूद
पृथ्वी
भीतर से कभी
दो ध्रुव नहीं होती
मेरी तुम्हारी तरह
तुम्हारी साँसें
हवा बनकर
हिस्सा होती हैं
मेरे बाहर और भीतर की प्रकृति
तुमसे सृष्टि बनती है ।
तुम्हारा होना
मेरे लिए रोशनी है ।
तुम्हारा वक्ष
धरती बनकर है
मेरे पास
तुम्हारे होने से
पूरी पृथ्वी मेरी अपनी है
घर की तरह
चिड़ियों की चहक में
तुम्हारे ही शब्द हैं
मेरी मुक्ति के लिए
मुक्ति के बिना
शब्द भी गले नहीं मिलते हैं
मुक्ति के बिना
सपने भी आँखों के घर में
नहीं बसते हैं ।
नहीं बसते हैं ।
मुक्ति के बिना
प्रकृति का राग भी
चेतना का संगीत नहीं बनता है ।
मुक्ति के बिना
आत्मा नहीं समझ पाती है
प्रेम की भाषा
मुक्ति के बिना
सब कुछ देह तक सीमित रहता है
मुक्ति में ही होती है देह विदेह ।
('रस गगन गुफा में अझर झरै' शीर्षक कविता संग्रह से)
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